Hartalika Teej vrat katha | हरतालिका तीज व्रत कथा पूजा विधि

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इस लेख में आपको हरितालिका तीज व्रत कथा Hartalika Teej vrat katha से जुडी सभी जानकारी विस्‍तृत रूप पढने को मिलेगी। हरितालिका व्रत इस वर्ष 9 सितम्‍बर 2021 दिन गुरूवार को है। हिन्‍दू पंचाग के अनुसार भाद्रपद के शुक्‍ल पक्ष की तृतीया है।


Hartalika teej vrat katha | हरतालिका तीज व्रत कथा

सूतजी ने कहा है शौनकादि महर्षिगण! मदार के फूलों से ये हुए केशवाली दिव्‍य वस्‍त्रों से विभूषित पार्वती जी को तथा मुण्‍डमाला में सुशोभित शिवजी को, जा दिगम्‍बर रहते हैं, ऐसे शिवजी को मै बार-बार प्रणाम करता हूं।Hartalika Teej vrat katha

 

कैलास पवर्त के रम्‍य शिखर पर विराजमान शिवजी से पार्वती जी ने पूछा कि, हे महेश्‍वर! आप आज मुझे कोई गुप्‍त से गुप्‍ततर रहस्‍य की बात बताने की कृपा करें। वह ऐसी बात हो जो सभी धर्मों का सार, अल्‍प परश्रिम से ही करने योग्‍य तथा अत्‍यन्‍त फल-दायिनी कथा का जिसमें समावेश हो।

यदि आप मुझ पर प्रसन्‍न है तो उसे बताने की कृपा करें। हे प्रभो! मैंने पूर्व जन्‍म में ऐसा कौन सा तप, दान या व्रत किया था, जिसके फलस्‍वरूप आप जैसे त्रैलोक्‍य के अधीश्‍वर, अनादि और अनन्‍त रूप वाले पति मुझे प्राप्‍त हुए।



शिवजी ने कहा- हे देवि! अब मैं तुमसे सर्वोत्‍तम व्रत का कथन करता हूं, क्‍यांकि तुम मेरी प्रेयसी हो। अत: मैं तुमसे इस गुप्‍त व्रत को बतलाता हूं। जिस प्रकार ताराओं में चन्‍द्र, ग्रहोंमें सूर्य, चारों वर्णों (ब्राहम्‍ण, क्षत्रिय, वैश्‍य और शूद्र) में ब्राहम्‍ण, देवों में विष्‍णु, नदियों में गंगा, पुराणों में महाभारत, वेदों में सामवेद और इन्द्रियों में मन श्रेष्‍ठ है, उसी प्रकार पुराणों एवं वेदों का सर्वस्‍य–उसी प्राचनी व्रत का मैं तुमसे कथन करता हूं, तुम उसे स्थिर चित्‍त से सुनो।

पूर्वकाल में जिस व्रत को तुमने किया था, उसी के प्रभाव से तुमने मेरी पत्‍नी का स्‍थान प्राप्‍त किया। प्रेयसी होने के कारण ही मैं तुमसे इस व्रत को प्रकट करता हूं।

भाद्रमास के शुक्‍ल पक्ष, हस्‍त नक्षत्र से युक्‍त तृतीया तिथि के दिन इस व्रत का अनुष्‍ठान करने से त्रिविध ताप एवं पाप से सित्रयां मुक्‍त हो जाती है। हे देवि! पूर्वकाल में इस माहव्रत को तुमने हिमालय पर्वत पर किया था, उन सभी पूर्व वृत्‍तान्‍तों का मै तुमसे वण्रन करूंगा।

पार्वती ने कहा- हे नाथ! मैने इस उत्‍तम व्रत को किस प्रकार किया था, उन सभी वृत्‍तान्‍त को मै आपके मुख-कमल से श्रवण करना चाहती हूं। तब शिवजी बोले- पर्वतो में श्रेष्‍ठ हिमालय नाम एक पर्वत है, जो अनेक प्राकर की भूमि तथा विविध वृक्षों से परिव्‍याप्‍त है। उस पर्वत पर अनके प्रकार के पक्षी, मृग, देवगण, गन्‍धर्व सिध्‍द, चारण और गुहाक प्रमुदित मन से विचरण करत हैं, एवं गन्‍धर्वगण निरन्‍तर गान किया करते हैं।

उस पर्वत की चोटी स्‍फटिक, स्‍वर्ण, मणि और मूंगों से सूशोभित हैं। यह पर्वत आकाशा के समान उंचा है, उसकी चोटियां सदैव बरफ से ढंकी रहती हैं तथा गंगा का निरन्‍तर निनाद होता रहता है। हे पार्वती! तुमने अपने बाल्‍यावस्‍था में जिस प्रकार की कठोर तपस्‍या की थी, मैं उसका वर्णन करता हूं। हे देवि! तुमने बारह वर्षों तक आँधी (नीचे को मुख और ऊपर को पैर) रहकर धूम्रपान के द्वारा बिताया था।

तुमने माघ के महीने में कण्ठ तक जल में निवास कर, वैशाख मास के प्रखर घाम में पद्चाग्नि सेवन कर, श्रावण मास में घर से बाहर वर्षा में भीगकर मेरी तपस्या निराहार रहकर की। तुम्हारे इस उग्र तप को देखकर तुम्हारे पिता हिमवान्‌ बहुत ही दुःखित एवं चिन्तित हुए। वे तुम्हारे विवाह के विषय में चिन्तातुर हो गये कि ऐसी तपस्विनी कन्या के लिए वर कहाँ से उपलब्ध हो सकेगा?




ऐसे ही समय में ब्रह्मपुत्र नारदजी आकाशमार्ग से तुम्हारे पिता के पास आये। तुम्हारे पिता ने उन मुनि श्रेष्ठ की अर्घ्य, पाद्य, आसन आदि देकर पूजा हिमवान्‌ ने कहा- हे मुनिप्रवर! आप अपने आने का कारण बतलाइए, क्योंकि परम सौभाग्य से ही आप-जैसे महानुभावों का आगमन होता है।

उत्तर में नारद मुनि ने कहा-हे पर्वतराजा! आप मेरे आने का कारण जानना चाहते हैं, तो सुनिए- मुझे भगवान्‌ विष्णु ने आपके पास संदेशवाहक के रूप में भेजा है और कहा है कि अपने इस कन्यारत्र को किसी योग्य पुरुष के ही हाथ में अर्पित करें।

 सम्पूर्ण देवों में वासुदेव से बढ़कर अन्य कोई देव नहीं है इसलिए मेरी भी यही राय है कि आप अपनी कन्या भगवान्‌ विष्णु को सौंप कर जगत्‌ में यशस्वी बनें। नारद जी की बात सुनकर हिमालय ने कहा- यदि भगवान्‌ विष्णु ने इस कन्या को ग्रहण करने की स्वयं इच्छा की है तो मुझे कोई आपत्ति नहीं है, क्योंकि आपकी सम्मति है, इसलिए अब आज से इस सम्बन्ध को निश्चित ही समझिए।

हिमवान्‌ द्वारा इस प्रकार का निश्चात्मक उत्तर पाकर नारदजी उस स्थान से अन्तर्ध्यान होकर शंख, चक्र, गदा एवं पद्मधारी विष्णु के पास उपस्थित हुए। उन्होंने हाथ जोड़कर प्रणाम करते हुए विष्णु भगवान से कहा- हे देव! मैंने आपका विवाह सम्बन्ध पर्वत-राज हिमवान्‌ की पुत्री से निश्चित कर दिया।

उधर हिमवान्‌ ने प्रसन्न होकर तुमसे कहा कि, हे पुत्री! मैंने तुम्हारा विवाह भगवान्‌ विष्णु के साथ पक्का कर दिया है। पिता द्वारा विपरीतार्थक वाक्य सुनकर तुम अपनी सखी के घर चली गयी और वहीं भूमि पर लुण्ठित  होकर अत्यन्त विलाप करने लगी।

तुम्हें रुदन करते देखकर तुम्हारी सहेलियों ने तुमसे पूछा कि, हे देवि! तुम अपने दुःख का कारण मुझे बताओ, हम सभी निःसन्देह आपका कार्य पूरा करेंगी। सखियों द्वारा आधवासन पाकर तुमने उत्तर दिया – हे सखी! आप सभी सुनिए, मेरी इच्छा महादेवजी के साथ विवाह करने की है।

परन्तु मेरे पिता ने मेरी इच्छा के विरुद्ध कार्य किया है अर्थात्‌ उन्होंने विष्णु भगवान के साथ विवाह करने का नारदजी को वचन दे दिया है। इसलिए सखियों! अब मैं अपने इस शरीर का निश्चित रूप से परित्याग करूँगी।

तब तुम्हारी बात सुनकर सखियों ने कहा- तुम घबराओ नहीं, हम और तुम दोनों ही किसी ऐसे घनघोर वन में निकल चलें, जहाँ पर तुम्हारे पिता न पहुँच सकें। इस प्रकार की गुप्त मत्रणा करके तुम अपनी सखियों के साथ निर्जन वन में पलायन कर गयी।

तदनन्तर तुम्हारे पिता हिमवान्‌ ने पास पड़ोस के प्रत्येक घरों में तुम्हारी खोज की, किन्तु तुम्हारा कहीं भी पता न लगा। तुम्हारे पिता ने तुम्हें न पाकर मन में सन्देह किया कि कहीं किसी देव, दानव, किन्नर आदि ने मेरी पुत्री का अपहरण तो नहीं कर लिया।

वे इस सोच में भी पड़ गये कि मैं अब नारद जी को क्या जवाब दूँगा, क्योंकि मैंने उनसे विष्णु के लिए पुत्री के विवाह का वचन दिया था। अब मैं उपहास का पात्र बनूँगा। ऐसा सोचते-सोचते वे घबराकर मूर्च्छिंत हो गये।

उनके संज्ञाशून्य होते ही सभी लोग उनके समीप एकत्रित होकर उनसे पूछने लगे कि, हे पर्वतराज! आप अपनी मूर्चष्छितावस्था का कारण मुझे बतावें।

कुछ स्वस्थ होने के बाद हिमालय ने उन लोगोंसे कहा- मेरी कन्या का किसी ने अपहरण कर लिया है अथवा हो सकता है, किसी विषधर सर्प ने डँस लिया हो। अथवा सिंह, व्याप्र आदि किसी हिंसक पशु ने भक्षण कर लिया हो यही मेरे दुःख का करण है।

जाने मेरी पुत्री कहाँ चली गयी, अब मैं क्या करूँ? ऐसा कहते हुए हिमालय इस प्रकार कॉपने लगे, जैसे किसी प्रचण्ड आँधी में वृक्ष हिलने लगते हैं तत्पश्चात्‌ तुम्हारे पिता तुम्हारी खोज में भयानक जंगल के भीतरअग्रसर हुए। इधर तुम तो पहले से ही अपनी सखियों के साथ उस भीषण वन में जा चुकी थी।

उस स्थान पर एक नदी प्रवाहित हो रही थी, वहाँ एक गुफा (कन्दरा) भी थी। तुमने उसी गुफा में जाकर आश्रय लिया और निराहार रहकर मेरा बालुकामयी मूर्ति (शिव-पार्वती सहित) का स्थापन किया। जब भाद्रपद मास के शुक्लपक्ष की तृतीया हस्त-नक्षत्र से युक्त आयी तब तुमने उस दिन रात्रि में जागरण कर गीत-वाद्यादि के साथ मेरा भक्तिपूर्वक पूजन किया।



हे प्रिये ! तुम्हारे द्वारा की गयी उस कठिन तपस्या एवं व्रत के प्रभाव से मेरा सिंहासन चलायमान हो उठा और जहाँ तुम सखियों के साथ थी, उस स्थान पर मैं जा पहुँचा।

मैंने तुमसे कहा कि, हे वरानने! मैं तुमसे अत्यन्त प्रसन्न हूँ, तुम मुझसे अपना इच्छित वर प्राप्त कर लो। तब उत्तर में यदि तुमने कहा कि, हे देव! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो आप मुझे पतिरूप में प्राप्त हों। मैं ‘तथास्तु’ (ऐसा ही हो) कहकर पुनः अपने कैलास पर्वत पर आ गया। मेरे चले आने के बाद तुमने प्रातःकाल नदी में ख्रान कर मेरी स्थापित मूर्ति का विसर्जन किया। इतना करने के बाद तुमने अपनी सखियों के साथ पारण किया ।

उसी समय तुम्हारे पिता हिमालय भी तुम्हें खोजते हुए उसी जंगल में आ पहुँचे। किन्तु वन की गहनता के कारण चारों ओर ढूँढने पर भी तुम्हारा कुछ भी पता उन्हें न लगा। अब तो वे निराश होकर भूमि पर गिर पड़े।

पुनः उठने के बाद हिमालय ने दो कन्याओं को सुप्तावस्था में देखा। उन्होंने निकट आकर तुम्हें गोद में उठा लिया और रुदन करने लगे। रोते-रोते ही उन्होंने तुमसे पूछा कि, तुम इस घनघोर जंगल में किस प्रकार आ पहुँची?

पिता की बात सुनकर तुमने उनसे कहा कि हे तात! मैं अपना विवाह शिवजी के साथ करना चाहती थी, परन्तु मेरी इच्छा के प्रतिकूल आपने विष्णु भगवान से मेरा वैवाहिक सम्बन्ध स्थिर कर लिया।

इसी कारण रुष्ट होकर मैं अपनी सखियों के साथ गृह का परित्याग कर इस भीषण वन में चली आयी। हे तात! यदि आप मुझे घर ले जाना चाहते हैं तो मुझे महादेव जी से विवाह करने की आज्ञा दीजिए। मेरा ऐसा ही दृढ़ निश्चय है। तुम्हारे इस दृढ़ संकल्प को जानकार तुम्हारे पिता ने ‘तथास्तु’ (ठीक है) कहा और वे तुम्हें अपने साथ घर वापस ले गये।

घर पहुंचने पर मेरे साथ तुम्हारा पाणि-ग्रहण हुआ। उसी व्रत के प्रभाव से तुमने अचल सौभाग्य प्राप्त कर लिया। मैंने आज तक इस
व्रत का कथन किसी से नहीं किया है। हे देवि! तुम अपनी सखियों के द्वारा अपन (हरण) की गयी इसी से इस व्रत का नाम ‘हरितालिका’ Hartalika Teej vrat katha पड़ा।

Teej vrat ka mahatva | तीज का व्रत क्यों रखते हैं

पार्वतीजी ने कहा- हे प्रभो! आपने इस व्रत के नाम का निरूपण तो कर दिया, अब इसके विधान तथा माहात्म्य का वर्णन भी कीजिए। इस ब्रत को करने से क्या फल होता है तथा इस व्रत को पहले किसने किया था, यह भी बतलाने की कृपा करे ?

शिवजी ने कहा- हे देवि! अब मैं तुमसे इस व्रत का विधान बतलाता हूँ । सौभाग्य की कामना करने वाली सभी नारियों के लिए यह व्रत करने योग्य है. क्योंकि यह व्रत स्त्रियों का सौभाग्यदायक है। सर्वप्रथम केला के खम्भों से एक मंडप का निर्माण करें।

तदनन्तर उस मण्डप को विविध वर्णों के वस्रों से आच्छादित कर उसमें सुगनश्धित चन्दन का लेपन करें। फिर उसमें पार्वती सहित मेरी बालू की मूर्ति बनाकर स्थापित करें और शंख, भेरी मृदंग आदि बाजों को बजाकर, विविध प्रकार के सुगश्धित पुष्पों एवं नैवेद्य आदि चढ़ाकर मेरी करें। पूजन के बाद उस दिन रात्रि में जागरण करें। ऋतु के सुपारी, जामुन, मुसम्मी, नारंगी आदि का भोग अर्पित करें।



पूजा अनुसार नारियल,तत्पश्चात्‌ पाँच मुख वाले, शान्तिस्वरूप एवं त्रिशूलधारी शिव को मेरा नमस्कार है ऐसा कहकर नमन करें। नन्‍दी, भंगी, महाकाल आदि गणों से युक्त शिव को मेरा नमस्कार है तथा सृष्टिस्वरूपिणी प्रकृतिरुप शिव की कान्ता (पार्वती) को मेरा नमस्कार है। हे सर्वमंगल-प्रदायिनी, जगन्मय शिवरूप कल्याणदायिके! शिवरूपे शिवे! शिवस्वरूपा तेरे तथा शिवा के निमित्त एंव ब्रह्मचारिणी स्वरूप जगद्धात्री के लिए मेरा बार-बार प्रणाम है। हे सिहंवाहिनी ! आप भव-ताप से मेरा त्राण करें। हे माहेथ्वरि! आप मेरी सम्पूर्ण इच्छाएँ पूर्ण करें।

हे मातेथ्वरि ! मुझे राज्य, सौभाग्य-सम्पत्ति प्रदान करें- इस प्रकार कहकर मेरे साथ तुम्हारी पूजा स्त्रियों को करनी चाहिए। विधिवत्‌ कथा-श्रवण करने के पश्चात सामर्थ्य के अनुसार ब्राह्मण को अन्न, वस्त्र एवं धन प्रदान करें। तदनन्तर भूयसी दक्षिणा देकर सम्भव हो तो स्त्रियों को आभूषण आदि भी देवें। इस सौभाग्यवर्धिनी पुनीत कथा को अपने पति के साथ श्रवण करने से नारियों को महान्‌ फल की उपलब्धि होती है।

हे देवि! इस विधि से जो ख्रियाँ इस व्रत को करती हैं, उन्हें सात जन्मों तक राज्य-सुख एवं सौभाग्य प्राप्त होता है। ब्रत के दिन जो नारी अन्न का आहार ग्रहण करती है वह सात जन्म तक सन्‍्तानहीनता एवं विधवा होती है।

जो स्री उपवास नहीं करती वह दरिद्री, पुत्र-शोक से दुःखी एवं कर्कशा (झगड़ालू) होती है तथा नरक-वास करके दुःख भोगती है। जो नारी इस व्रत के दिन भोजन करती है उसे शूकरी, दुग्धपान से सर्पिणी, जल का पान करने से जोंक अथवा मछली, मिष्ठान भक्षण से चींटी आदि योनियों में जन्म लेना पड़ता है।

अनुष्ठान की समाप्ति पर नारियों को चाहिए कि वे चांदी, सोने, तांबे अथवा इन सभी के अभाव में बाँस की डलिया में वसत्र, फल पकवान आदि रखकर दक्षिणा के साथ ब्राह्मण को दान करे। अन्त में, दूसरे दिन व्रत का पारण करें।

जो नारियाँ इस विधि से व्रत का अनुष्ठान करती हैं, वे तुम्हारे समान अनुकूल पति को प्राप्त कर इस लोक में सभी सुखों का उपभोग करती हुई अन्त में सायुज्य मुक्ति प्राप्त करती हैं।

इस कथा के श्रवण कर लेने से ही स्रियाँ हजारों अश्वमेघ यज्ञ एवं सैकड़ों वाजपेय यज्ञ के करने का फल प्राप्त करती हैं। हे देवि! मैंने तुमसे इस सर्वोत्तम ब्रत का कथन किया, जिसके करने से करोड़ों यज्ञ का फल सहज ही प्राप्त होता है, अतः इस व्रत के फल का वर्णन सर्वथा अकथनीय है।

 तीज व्रत पूजा विधि | Hartalika teej vrat puja vidhi

सौभाग्यवती ख्री को चाहिए कि वह प्रातःकाल स्नान आदि नित्य क्रिया से शुद्ध होकर आसन पर पूर्व मुख बैठे, बायें हाथ में जल लेकर दाहिने
हाथ से –

अपवित्र: पवित्रो वा सर्पाविस्थां गतोछपि वा /

यः स्मरेत्‌ पुण्डरीकाक्ष स॒ बाह्याभ्यन्तरः शुत्ति: ॥

 

यह मत्र पढ़कर अपने शरीर पर जल छिड़कें। पुनः दाहिने हाथ में  जल लेकर हरितालिका व्रत का मानसिक संकल्प करते हुए उमा-

महेश्वर के पूजन का संकल्प कर, जल भूमि पर छोड़ दें।

तदनन्तर गणेशजी का विधि पूर्वक पूजन कर हाथ में विल्वपत्र लें, पीतवखत्र धारण की हुई, सुवर्ण के सहदश कान्तिवाली, कमल के आसन
पर बैठी हुई, भक्तों को अभीष्ट वर देने वाली पार्वती का मैं नित्य चिन्तन करती हूँ। इसी प्रकार मदार की माला केश में धारण की हुई, दिव्य वस्त्र से विभूषित ऐसी पार्वती तथा मुण्डमाला धारण किये हुए दिगम्बर, ऐसे शिव का चिन्तन करती हुई उमा-महेश्वर की मूर्ति पर विल्वपत्र चढ़ावें।

तत्पश्चात्‌ हाथ में अक्षत लेकर, उमा-महेध्वर का आवाहन पूर्वक आसन प्रदान कर पाद्य, अर्घ्य, आचमन, पश्चामृत स्नान, शुद्धोादक स्नान कराकर वख््र, यज्ञोपवीत, पार्वती को कंचुकी धारण करावें । पुनः गंध, अक्षत, सौभाग्य द्रव्य, सुगच्धित पुष्प चढ़ाकर हाथ में पुष्प, अक्षत लेकर पार्वती के प्रत्येक अंग पर चढ़ावे। उसके बाद धूप, दीप, नैवेद्य, फल, पान, सोपारी, दक्षिणा चढ़ाकर कपूर की आरती तथा हाथ फूल लेकर पुष्पांजलि उमा-महेश्वर के चरणों में समर्पित करें।

पश्चात उमा-महेश्वर की मूर्ति की हाथ से प्रदक्षिणा कर नमस्कारपूर्वक, हे देवि! आप मुझे पुत्र, धन, सौभाग्य तथा मेरे सभी मनोरथों को पूर्ण करें। इस प्रकार कहकर उमा-महेश्वर से प्रार्थना करे। तदनन्तर हाथ में जल लेकर


‘अन्‍न खुवर्णपात्रस्थं स॒ वत्न-फल-दक्षिणास्‌ /
वायन॑ यौरि / विप्राय ददामि तव ग्रीतये ॥१ ॥
सौभाग्या-55रेग्य- कामाय सर्वसम्पत्ययद्धये ।
यौरी-गिरीश-दुष्धर्थ वायन॑ च ददास्यहस्‌ ॥२ ॥

इन श्लोकों को पढ़ संकल्पपूर्वक सौभाग्यवायन (सोहाग-पिटारी) ब्राह्मण को दे। उसके बाद हरितालिका व्रत की कथा ब्राह्मण द्वारा अथवा अन्य किसी के द्वारा श्रवण करे। या स्वयं पढ़े।

Hartalika teej vrat udyapan vidhi in hindi | तीज व्रत का उद्यापन कैसे करें

इस ब्रत के उद्यापन करने वाली स्त्री को स्नान आदि नित्य क्रिया से निवृत्त होकर नया वस्त्र धारण करना चाहिए। फिर पूर्व की ओर मुँह करके आसन ग्रहण करें। दाहिने हाथ की अनामिका अँगुलि में पैंती (पवित्री) पहनकर ब्राह्मणों द्वारा स्वस्ति वाचन काायें। तत्पश्चात गणपति एवं कलश का पूजन करे। एक कलश पर चाँदी की शिव की तथा दूसरे कलश पर सुवर्ण की गौरी की प्रतिमा स्थापित करें। इसके बाद ब्राह्मण को दक्षिणा आदि देकर उनसे आशीर्वाद ग्रहण करें।

दूसरे दिन प्रातः काल वेदी में अग्नि स्थापित कर एक सौ आठ बार आहति देवें। हवन की सामग्री में काला तिल, यव और घृत सम्मिलित होना चाहिए। हवन के अन्त में, नारियल में घी भरकर उसे लाल कपड़े से लपेटकर अग्निमें हवन कर दें।

पूर्णाहुति के पश्चात सोलह सौभाग्य पिटारी (बॉस की बनी हुई डलिया) में पकवान भर कर दक्षिणा के साथ सोलह ब्राह्मणों को दान करें। यदि सम्भव हो तो सभी ब्राह्मणों को एक-एक वस्त्र भी प्रदान करें। गाय दे सकें तो ब्राह्मण को गोदान भी करें तदनन्तर सोलहों ब्राह्मणों को भोजन कराकर, उन्हें ताम्बूल और दक्षिणा  देकर, उनसे आशीर्वाद प्राप्त करें।

इसके बाद हाथ में अक्षत लेकर सभी स्थापित देवों पर अक्षत छिड़कते हुए उनका विसर्जन करें। इन सभी कृत्यों के कर लेने के बाद ही स्वयं अपने बच्धु-बान्धवों के साथ भोजन करना चाहिए।

Aarti parvati ji ki | आरती पार्वती माता की

जय पार्वती माता जय पार्वती माता ब्रह्म सनातन देवी शुभ फल कदा दाता।. |

जय पार्वती माता जय पार्वती माता। अरिकुल पद्मा विनासनी जय सेवक त्राता

जग जीवन जगदम्बा हरिहर गुण गाता। जय पार्वती माता जय पार्वती माता। 

सिंह को वाहन साजे कुंडल है साथा देव वधु जहं गावत नृत्य कर ताथा।

ये पार्वती माता जय पार्वती माता। सतयुग शील सुसुन्दर नाम सती कहलाता ऊँ

हेमांचल घर जन्मी सखियन रंगराता | जय पार्वती माता जय पार्वती माता।

शुम्भ निशुम्भ विदारे हेमांचल स्थाता सहस भुजा तनु धरिके चक्र लियो हाथा।

जय पार्वती माता जय पार्वती माता। सृष्टि रूप तुही जननी शिव संग रंगराता 

 नंदी भृंगी बीन लाही सारा मदमाता। जय पार्वती माता जय पार्वती माता।

देवन अरज करत हम चित को लाता गावत दे दे ताली मन में रंगराता। 

जय पार्वती माता जय पार्वती माता। मैया जी कीआरती जो कोई गाता

सदा सुखी रहता सुख संपति पाता। जय पार्वती माता मैया जय पार्वती माता। 


शिव जी आरती | shiv ji ki aarti lyrics

जय शिव ओंकारा हर ॐ शिव ओंकारा |
ब्रह्मा विष्णु सदाशिव अद्धांगी धारा ॥ ॐ जय शिव ओंकारा
एकानन चतुरानन पंचांनन राजे |
हंसासंन, गरुड़ासन, वृषवाहन साजे॥ ॐ जय शिव ओंकारा
दो भुज चारु चतुर्भज दस भुज अति सोहें |
तीनों रूप निरखता त्रिभुवन जन मोहें॥ ॐ जय शिव ओंकारा
अक्षमाला, बनमाला, रुण्ड़मालाधारी |
चंदन, मृदमग सोहें, भाले शशिधारी ॥ ॐ जय शिव ओंकारा
श्वेताम्बर,पीताम्बर, बाघाम्बर अंगें |
सनकादिक, ब्रह्मादिक, भूतादिक संगें॥ ॐ जय शिव ओंकारा
कर के मध्य कमड़ंल चक्र, त्रिशूल धरता |
जगकर्ता, जगभर्ता, जगससंहारकर्ता ॥ ॐ जय शिव ओंकारा 
ब्रह्मा विष्णु सदाशिव जानत अविवेका |
प्रवणाक्षर मध्यें ये तीनों एका॥ ॐ जय शिव ओंकारा
काशी में विश्वनाथ विराजत नन्दी ब्रम्हचारी |
नित उठी भोग लगावत महिमा अति भारी ॥ ॐ जय शिव ओंकारा
त्रिगुण शिवजी की आरती जो कोई नर गावें |
कहत शिवानंद स्वामी मनवांछित फल पावें ॥ ॐ जय शिव ओंकारा
जय शिव ओंकारा हर ॐ शिव ओंकारा|
ब्रह्मा विष्णु सदाशिव अद्धांगी धारा॥ ॐ जय शिव ओंकारा

अब मुझे आशा है कि आप हरितालिका तीज व्रत Teej vrat katha  कथा के बारे में पूरी जानकारी मिल गयी होगी। यदि फिर आपके मन में कोई सवाल है तो हमें कमेंट करके जरूर बतायें।

Hartalika Teej vrat katha लेख पढने के लिये आपका धन्‍यवाद।



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